बुधवार, 8 जुलाई 2009

अगले जनम मोहे ........

अरविन्द शर्मा :
लाइवमैं सोच नहीं पा रहा हूं कि इस सवाल में दुआं नजर आ रही है या वो दर्द कहने की कोशिश की जा रही है जो हम और आप नहीं समझ पा रहे हैं। यह सवाल राजस्थान की उन बेटियों का है जो इस सवाल के साथ हर पल तड़प रही है। यह दर्द भी और किसी ने नहीं, उनके जन्मदाता ही दे रहे हैं। दर्द कितना बड़ा है, इसका अंदाजा कलर्स टीवी के बालिकावधु से लगाया जा सकता है। तारिख एक जुलाई 2009। अपने कुछ सवालों के जवाब लिए मैं निकल चुका हूं, उन गांवों में जहां बेटियों को जिंदगीभर का दर्द दिया जा रहा है। दिल्ली की ममता संस्था जो बाल-विवाह की प्रथा के खिलाफ लड़ रही है, उसका दल भी मेरे साथ है। इटली के मार्को व एलेक्जेंड्रा ने भी अपने सवालों के जवाब तलाशने मेरे साथ निकल पड़े। कटराथल की ख्यालियों की ढाणी। यहां के कल्लुराम सैनी (बदला हुआ नाम) से मिलते ही मैंने पहला सवाल किया, आपने बेटी की शादी बचपन में क्यों कर दी? जो जवाब मुझे मिला, उसकी गूंज आज भी मेरे कानों को चीर रही है। जवाब था, साहब बेटियों को ज्यादा दिनों तक घर में रखना अशुभ होता है। शायद आपको यकीन न हो कि एक पिता ऐसा कैसे कह सकता है, मगर यह हकीकत है। कुछ परिवार ऐसे भी है जो गरीबी के कारण अपने बेटियों को उस अंधे कुएं में धकेल देते हैं, जहां रोटी है, कपड़ा है, सिर छुपाने के लिए एक छत है। बस कुछ नहीं है तो वो हंसता-खेलता बचपन, मां-बाप का प्यार, सहेलियों के साथ मटरगस्ती और वो सुनहरी यादें जो एक बेटी पिता के घर से विदा होते वक्त अपने साथ ले जाती है। यकीन नहीं है तो मेना (बदला हुआ नाम) की दर्दभरी दांस्ता जान लीजिए। यह आठ बरस की थी तब उसके पिता ने उसकी शादी कर दी, आज यह 21 बरस की हो चुकी है। अपने ससुराल में खुश है, मगर इसके सवालों के जवाब मैं और मेरा दल का कोई भी सदस्य नहीं दे पाया। मेना का सबसे बड़ा सवाल था, क्या मुझे हंसता-खेलता बचपन वापस लौटा सकते हो? मैं और मेरे साथी कटराथल, रामपुरा, कांवट, बंधावाला की ढाणी, दुल्लेपुरा व श्रीमाधोपुर के कुछ गांवों में 50 से अधिक परिवारों से मिले। तस्वीर का दूसरा पहलु भी बड़ा ही खौफनाक है। महिला एवं बाल विकास विभाग के सर्वे के मुताबिक, राजस्थान में 80 फीसदी बाल-विवाह जबरन कराए जाते हैं। बच्चों को नए कपड़े, चॉकलेट का लालच देकर उन्हें उस डोर में बांध दिया जाता है, जिसके मायने क्या है जब तक उन्हें पता चलते हैं, तब तक जिंदगी की खुशियां 'राखÓ में बदल चुकी होती है। जरा सोचिए.............! apkikhabar.blogspot.com

सोमवार, 18 मई 2009

भारत मे कन्या भ्रूण हत्या

आज 'देवी' दु:ख व दिक्कत में है। उसे उस सभ्य समाज से अस्तित्व के लिए लडना पड रहा है जो उसे पूजता है। पाखंडी व आडंबरी समाज अपनी जननी को ही जडाें से उखाड फ़ेंकने पर आमादा है। बेटी के नाम पर सौ-सौ कसमें खाने वाले ही उसे पीडा दे रहे हैं। बेटी को पराई कहने वालों ने कभी उसे हृदय से स्वीकार किया ही नहीं। दु:खद पहलू यह है कि बेटी का शोषण की शुरुआत हमारे घराें से होती हुई समाज में फैल रही है। मानवता के दरिंदें तो लडक़ी के जन्म लेने से पहले ही उसकी हत्या करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। 'बालिका बचाओ' व सशक्तिकरण विषय पर चर्चाएं व सेमीनार तो बहुत होते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर बेटियां आज भी 'बेचारी' हैं। हमने उन्हें अबला बनाया है संबल कभी नहीं दिया। बच्चियों के खान-पान से लेकर शिक्षा व कार्य में उनसे भेदभाव होना हमारे सामाज की परंपरा बन गई है। दु:खद है कि इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी उसी परंपरा की अर्थी को ढो रहा है। कितना शर्मनाक है कि पूरे देश व हमारे जम्मू-कश्मीर में कई मां-बाप अभी तक बेटी को शिक्षित करने में कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैैं। उन्हें घूट-घूट कर घर में रहने के लिए मजबूर होना पड रहा है। घर से शुरू होने वाले शोषण की वे बाद में इतनी आदि हो जाती हैं कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को भी वे परिवार के लिए हंस कर सहन करती हैं। यह वास्तव में विडंबना है कि हमारे देश के सबसे समृध्द राज्याें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। बालिका भूण हत्या की प्रवृत्ति सबसे अधिक अमानवीय असख्य और घृणित कार्य है। पितृ सत्तात्मक मानसिकता और बालकाें को वरीयता दिया जाना ऐसी मूल्यहीनता है, जिसे कुछ चिकित्सक लिंग निर्धारण परीक्षण जैसी सेवा देकर बढावा दे रहे हैं। यह एक चिंताजनक विषय है कि देश के कुछ समृध्द राज्याें में बालिका भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति अधिक पाई जा रही है। देश की जनगणना-2001 के अनुसार एक हजार बालकाें में बालिकाओं की संख्या पंजाब में 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 है, जो एक चिंता का विषय है। इसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। कुछ अन्य राज्याें ने अपने यहां इस घृणित प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक प्रभावकारी कदम उठाए जैसे गुजरात में 'डीकरी बचाओ अभियान' चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्याें में भी योजनाएं चलाई जा रही हैं। यह कार्य केवल सरकार नहीं कर सकती है। बालिका बचाओ अभियान को सफल बनाने के लिए समाज की सक्रिय भागीदारी बहुत ही जरूरी है। देश में पिछले चार दशकाें से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 1981 में एक हजार बालकाें के पीछे 962 बालिकाएं थीं। वर्ष 2001 में यह अनुपात घटकर 927 हो गया, जो एक चिंता का विषय है। यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड रहा है। वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की 138वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था। राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लडक़ियाें को लडक़ाें के समान महत्व नहीं मिलता। लडक़ा-लडक़ी में भेदभाव हमारे जीवनमूल्याें में आई खामियाें को दर्शाता है। उन्नत कहलाने वाले राज्याें में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजाें में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में सैक्स रैशो में सुधार और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है। इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगाें के बारे में जानकारी देने वाले को 10 हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है। प्रत्येक प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को ऐसा सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम 1994 को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। भ्रूण हत्या को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निजी क्लीनिक्स का औचक निरीक्षण व उन पर अगर नजर रखने की जरूरत है। भ्रूण हत्या या परीक्षण करने वालों के क्लीनिक सील किए जाने या जुर्माना किए जाने का प्रावधान की जरूरत है। फिलहाल इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना के तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को 25 हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को 20 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं। बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है। बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है। इस काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

बेटिया

घर भर को जन्नत बनाती है बेटियाँ॥! अपनी तब्बुसम से इसे सजाती है बेटियाँ॥ ! पिघलती है अश्क बनके ,माँ के दर्द से॥! रोते हुए भी बाबुल को हंसाती है बेटियाँ॥! सुबह की अजान सी प्यारी लगे॥, मन्दिर के दिए की बाती है बेटियाँ॥! सहती है दुनिया के सारे ग़म, फ़िर भी सभी रिश्ते .निभाती है बेटियाँ...! बेटे देते है माँ बाप को .आंसू, उन आंसुओं को सह्जेती है .बेटियाँ...! फूल सी बिखेरती है चारों और खुशबू, फ़िर .भी न जाने क्यूँ जलाई जाती है बेटियाँ...
Posted by RAJNISH PARIHAR

बुधवार, 4 मार्च 2009

बेटियां क्यूँ....होती है पराई....

जब भी किसी युवा जोड़े की शादी होती है तो उनकी आंखों में कितने अरमान होते है!जीवन की वास्तविकताओं से उनका पहला सामना तब होता है जब घर में नया मेहमान एक छोटा शिशु आता है!उनके लिए ये कोई मायना नहीं रखता की वह लड़का है या लड़की?वे उसे प्यार करते नही थकते....लेकिन यहीं से सब कुछ बदलना शुरू हो जाता है!यदि शिशु लड़की है तो अचानक बहुत से बुद्धिजीवी आ धमकते है जो माता को बार बार ये अहसास कराते है की ये लड़की है ..ध्यान रखो...!अब माता .पिता को ये लोग गाहे बगाहे ये टेंशन देते रहते है...लड़की को ज्यादा सर न चढाओ,इसके कपडों पर ध्यान दो,आख़िर ये लड़की है,ज्यादा मत .पढाओ......आदि..आदि...!सबसे ज्यादा समस्या तो .तब...खड़ी होती है..जब कोई महिला कार्यक्रम हो!यहाँ तो लड़की के माता पिता को इस तरह से ..दबाया....जाता है जैसे उन्होंने लड़का पैदा ना करके कितनी बड़ी भूल की हो?लड़कियां हमारी शान है..वो वे सब काम करके दिखा रही है,जिन पर कभी पुरुषों का आधिपत्य था....!बोर्ड एक्साम में लड़कियां हमेशा आगे रहती है..इसकी मिसाल के तौर पर बहुत लम्बी लिस्ट है..!बुढापे में जब माँ बाप को सब छोड़ जाते है...जब सब लड़के मिल कर भी उन्हें .पाल...नहीं सकते..तब लडकियां पराया धन होते हुए भी माँ बाप से जुड़ी रहती और उन्हें खुशी देने का भरसक प्रयत्न करती है....फ़िर क्यूँ समझे उन्हें .पराई....?क्यों?..क्यों?...क्यों जनम से ही उन पर पराई का ठप्पा लगा दिया जता है.....क्यों उन्हें बार बार लड़की होने का एहसास दिलाया जाता है..!क्या किरण बेदी,कल्पना चावला,इंदिरा गांधी या..लक्ष्मी बाई.के लड़की होने का हमे अफ़सोस है?????यदि नहीं तो फ़िर अपने घर में लड़की होने पर थाली क्यों न बजाये....!क्यों न हम उन्हें वे सब सुविधाएँ देन जो लड़कों को देते है क्यूंकि एक लड़की ही तो किसी की माँ,बहिन,भांजी,भतीजी,भाभी या फ़िर प्रेमिका बनेगी ...क्या इन रिश्तों के बिना जीना .सम्भव है...?फ़िर क्यूँ समझे इन्हे पराई..... !
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शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

अगले जन्म .....

पचमढ़ी में ७० फीट की ऊंचाई से फेंकी गई बच्ची गुड़िया ने एक बार फिर मुझे नारी के अस्तिव पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।" नारी यत्रत पूजते, रमते तत्र देवता " की संस्कृति पर विश्वास करने वाले इस देश में पल-पल नारी अस्मिता से होता खिलवाड़, निहित स्वार्थो के लिए सामाजिक संस्कार और रीति रिवाजों के नाम पर क्षण भर में उसके स्वप्नों को तोड़ता ये सामाजिक परिवेश, क्या इसकी ही परिणीति नहीं है, गुड़िया का उसकी अपनी मां द्वारा ही परित्याग करने की यह घटना, इससे भी दुखद पहलू है कि एक शिक्षित नारी जब ऐसा कदम उठाने में गुरेज नहीं करती तो, गांव-देहातों की अशिक्षित महिलाएं यदि बेटी होने पर हो हल्ला मचाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इस शिक्षिका मां का ये कृत्य तो सामने आ गया, लेकिन क्या हम जैसी कितनी ही शिक्षित महिलाएं कभी-कभार सोच में ही सही ऐसे कृत्यों को अंजाम नहीं दे चुकी होती है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो क्या नारी अपने ही एक अंश के रूप में नारी को जन्म देना किसी दुस्वप्न से कम नहीं मानती, ऐसा नहीं है कि केवल बेटी की शादी और दहेज के पक्ष को देखते हुए महिलाएं ऐसा सोचने पर मजबूर होती है, इसकी प्रमुख वजह है समाज द्वारा नारी को दिया गया परिवेश। हम ऐसे सामाजिक परिवेश में बेटियों के सदियों तक उपेक्षित होने की बात सोच सकते है, जिस परिवेश में पुरूष वर्ग अपमानित करने के लिए ही नारी अस्मत को ही हथियार बनाता है, समाज के ठेकेदार कहलाने वाले लोग बात-बात पर मां- बहन को गालियां और अपशब्द कहकर अपने अहम को तुष्ट करते है, क्यों बात-बात पर लोग बाप-भाई की गाली क्यों नहीं देते। इसके अलावा संचार क्रांति और विकास के इस युग में नारी को अपमानित करने के एमएमएस जैसे हथियार भी नारी की अस्मिता को बेधने के लिए ईजाद कर डाले है। क्या प्रकृति से मिला शारीरिक संरचना का यह उपहार हमें अभिशप्त होने के लिए मजबूर नहीं करता, इसमे हमारा क्या दोष है कि ईश्वर ने हमारी रचना ही जन्मदात्री के रूप में की है। अपने ही घर की चारदीवारी में छोटी-छोटी बच्चियों से होता ब्लात्कार, गली मोहल्ले, कार्यालयों, बसों, ट्रेनों में होते अश्लील इशारे, क्या कोई भी नारी अपने ही नारी अंश को दुनिया में लाकर इस हकीकत से रूबरू कराना चाहेगी ? यह सवाल दुनिया के सृजन के साथ शुरू हुआ है और दुनिया के खत्म होने तक भी इस सवाल का किसी के पास कोई उत्तर नहीं होगा। इस गीत की ये लाइन दोहराते हुए मुझे ना तो शर्म महसूस हो रही है और न ही कोई गिला..." अगले जन्म मुझे बेटी ना कीजो"

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

भ्रूण हत्या बंद करो

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

Gender Ratio Affects Marriage Norms in UP

Instant weddings in the eastern districts of Uttar pradesh
highlight a disturbing fact - the State's very low sex ratio।
It probably was not the most orthodox of liaisons, but he seemed like a nice boy with a steady job and a sizable area of land, and so Sunita (name changed) married him. Smiling self-consciously, she describes how he arrived at her village of Sarai Mohana in Varanasi district of Uttar Pradesh as part of a guided tour by eligible bachelors and their families. "He approached my father, while his younger brother met my cousin's family. We all went to Bidapur in Agra district, saw their house, and a month later we were married." At the time of Sunita's marriage, Sarai Mohana and the rest of Varanasi district existed on the periphery of marriage tours, but three years on, her village finds itself at the centre of the chatpat shaadi (instant wedding) circuit.

Matrimonial alliances in Varanasi and other parts of eastern U.P. have happened at such a hurried pace that Sunita's wedding seems almost sedate in comparison. Anxious grooms from western U.P. usually arrive in teams of 10 or more, with a pre-assembled baraat (wedding procession) of friends and family in tow, meet with an eligible and willing bride through a local matchmaker, hurriedly exchange marriage vows at the local temple, and return home in a matter of days.

The migration and movement of women has often produced anxieties among the communities from which migration occurs and the state and media organisations that track such movement. Migration, particularly of women, is often spoken of in the same breath as exploitation and trafficking and often described as an involuntary act forced upon women. While the realities of trafficking, forced prostitution and bonded labour cannot be ignored, they do not account for a huge number of women who crisscross the country every year. Census 2001 reveals that women account for 71 per cent, or 216.7 million of the 307 million cases, of total migration reported by place of birth. When further disaggregated, the data suggest that 65 per cent of women migrate because of marriage. While the veracity of the findings on the motivation to migrate has been questioned by academics, who argue that female labour migration is rendered invisible for a range of reasons, statistics do suggest that marriage is a significant factor behind migration. Then what makes the weddings of Sunita, her cousins and the 30 other women so different?

The chatpat shaadis can be seen as the point of intersection of two separate and disturbing phenomena: the pull factor that sends men from western U.P. in search of brides to the eastern districts and the push factor that makes the women accept these men.
While a ratio of 950 females per 1,000 males is considered normal in India, most countries tend to have more women than men. The national average in India, as per Census 2001, is 933. A State-wise break-up of the data ranks U.P., with a sex ratio of 898 way below in the rankings, only slightly better than Punjab, Haryana and Sikkim. The sex ratio of the population in the western districts of the State is below 900, while it is above 1,000 in some of the eastern districts.

"There are no women in western Uttar Pradesh," said Motilal Rajbhar. Motilal's daughter Gita is one of the most recent brides to have married a boy from Moradabad, a district in western U.P. with a sex ratio of 885.

"So any boy from Moradabad who does not belong to the upper caste, who does not have a steady job, who is above 25 years of age, or who is looking to get married for a second time, cannot hope to find a local girl willing to marry him," he says.

Moving from west to east along the map of U.P. shows a sex-ratio pattern that mirrors the path that the chatpat shaadi circuit traces. Saharanpur, the western-most district, has a sex ratio of 868; Muzaffarnagar has 872; Agra, one of the districts that a number of women marry into, has a distressing ratio of 852; and Mathura's figure is equally disturbing at 841. Azamgarh, one of the eastern-most districts, has a healthy ratio of 1,026, followed by Jaunpur at 1,021. Varanasi, while still much lower than the benchmark 950, has a sex ratio of 908.

Thus, one of the primary push factors in these inter-district marriages is the frightening unavailability of women in the western districts, which points to an undeclared genocide directed at girl children, denying them the right to life.

"Freedom for Rs.200!" exclaim the large painted doors of Mukti Clinic in Varanasi. Ostensibly a maternal health centre, it is only one of the several prenatal gender determination clinics that have sprung up all over the State. Heavily protected by local mafias, clinics such as these offer parents the option of aborting female foetuses right up to the fifth month of pregnancy and could be one of the biggest factors in the State's abysmal sex ratio. A large body of academic and statistical work has illustrated that economic prosperity is actually one of the largest contributing factors towards worsening sex ratios. Prosperity gives parents access to ultrasound machines that allow for gender determination and surgical procedures to enable female foeticide.

However, as Mukti Clinic illustrates, a complete package of gender determination and subsequent abortion can cost as little as Rs.200 in the first month and Rs.950 in the fifth month - a period when abortions are rarely performed. A district-wise examination of per capita incomes in the State only substantiates this prosperity-sex ratio thesis.

While Varanasi's status as a major town would suggest moderately higher per capita incomes, the crisis in one of Varanasi's oldest industries has spelt disaster for one of its most vulnerable communities - the Boonkar or weaver community, to which Sunita, Gita and Motilal Rajbhar belong.

For long the makers of one of Varanasi's most famous export item - the Benaras silk brocaded sari - the Boonkars are one of the most impoverished groups in the State today. A decade of economic reforms and policy changes has reduced the once-thriving community of almost 500,000 weavers to penury. "There are many reasons for the crisis, which include shifts in demand and changing customer preference," says Shruti Raghuvanshi, from the People's Vigilance Committee on Human Rights, a Varanasi-based advocacy group. "But government policy is perhaps the most significant factor."

A book published by the organisation explains that a decade of liberalised textile policy saw the government reduce the number of items reserved for exclusive production by handlooms to 11 from the 22 recommended under the Textile Policy of 1985. Also an increase in the prices of raw silk was accompanied by an increase in cheap Chinese remade silk imports. India also abolished quantitative restrictions on silk imports in 2001 on the basis of its agreements with the World Trade Organisation.

This resulted in thousands of handlooms across Varanasi district falling silent. "Each house in this village had at least two handlooms," says Bhagoti Devi, a resident of Bhagva Nalla, a weaver's colony outside Varanasi. "Now there are just four in the entire village." In the absence of weaving as a vocation, the only work now available in the village is that of construction labour. It is possible that the crisis has been the major push factor for the women of the weaver community.

Chatpat weddings are usually arranged with the help of a local facilitator or dalal. The dalal, who is often a woman, is usually one who is either from Varanasi and has married someone from western U.P., or vice-versa, and so has family in the villages of both the bride and the groom. Channoo Rajbhar is the dalal in Sarai Mohana and has got 30 young women from his village married off to young men from Moradabad over the past three years.

The dalal is charged with verifying the antecedents of both sides and arranging the modalities and logistics of the wedding. "Since the weddings are usually conducted within days of the couple meeting, a lot of planning is required," explains Rajbhar. "Pandits have to be arranged, a village feast has to organised, gifts have to arranged." However, the ultimate responsibility rests with the parents. "We usually arrange a meeting of the parents, after that we are no longer accountable."

The biggest draw of a chatpat wedding is the limited economic burden placed on the parents. While each case is different, dowry is very rarely taken in such alliances. In fact, the financial insecurity of the weaver community implies that the groom's side often pays the lion's share of the wedding expenses. The dalal extracts a percentage of the costs as commission - and these are entirely borne by the groom's family.

There is obviously a fair amount of money to be made on commissions; one family told Frontline that the money for their daughter's wedding was loaned to them by the dalal.
However, there is a growing number of instances in which young girls have married apparently wealthy landowners from Agra, only to find themselves in a one-room hutment in a faraway village, isolated from their family and support systems.

Gunja, a 16-year-old from Sarai Mohana, and her parents took all possible precautions before marrying her off to a youngster from Nandapur village in Agra district. Her parents met the groom's parents, and even visited their house in Agra. However, it was only after she was married and went to live with her husband that she realised that the couple posing as his parents were in fact his relatives, and the concrete house her parents had been shown was not his house. Gunja spent the next six months practically captive in a one-room mud hut before her parents arrived and rescued her. She now lives with her parents and refuses to return to her matrimonial home.

Uttar Pradesh's chatpat weddings are the latest addition to the larger national marriage market that functions along a complex and intricate network of brides, grooms and agents. States such as Punjab and Haryana have taken to sourcing brides from States as far away as West Bengal, Assam, Bihar and Tripura, apart from neighbouring Himachal Pradesh.
भ्रूण हत्या के खिलाफ हम और आप क्या कर सकते है ,कृपया अपने विचार हमें भेजे हो सकता है हमारा प्रयास बेटियों की घट रही संख्या पे रोक लगा दे

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

मेरी क्या गलती थी


मै सोनी हूँ ,ये नाम मुझे तब पता चला जब मुझे लड़की के रूप में पैदा होने के कारन मेरे तथाकथित माता पिता ने गर्भ से नेकलते ही हत्या कर काबाके ढेर पे फेंक दिया और मेरी लाश पे सोनी नाम लिखकर चस्पा कर दिया ,

मै पूछना चाहती हूँ आखिर मेरी क्या गलती थी जो मुझे इस तरह मार दिया गया ,क्या आज लड़की होना इतना गुनाह है .मेरी माँ भी to लड़की थी मेरे पिता की माँ भी लड़की थी ,उनको क्यो नही पैदा होते ही मार दिया गया ।

माँ तुम मन्दिर प्रतिदिन जाते हो और जिस माँ दुर्गा से पुत्र की कामना करती हो वो भी to लड़की थी उनकी पूजा होती है लेकिन मेरी जैसी लड़की को जनम लेते ही ? -------------------------------------------

मेरे इस पत्र को आप पुरा करे और बताये लोगो को की इसका असर आने wale दिनों में क्या होगा

note -- इस ब्लॉग पे अपना विचार bhejne के लिए @yahoo.कॉम पे अपना नाम और फ़ोन no भेजे हम आपको आमंत्रण karege


A Special Beginning to ‘Stop Female Foeticide’


Conceivably it is implausible for several people however scrutinizing figures of India’s census with vigilance do not only furnish astonishing facts but also alarm with colossal disquiet. Where the world’s concern today is women empowerment and gender equity, these surveys report sharp decline in the number of girls in India. Ever-increasing rate of “Female Foeticide” is one of the key causes of this data reflecting the effect of far lower number of girls with respect to boys in this country. Continuous rapid development of this country for more than last one decade looks as if it has commenced the retreat of girls. In this race of development we are getting aware of controlling population of India but when it comes to family planning then girls in mother’s wombs happen to be the victim of “Foeticide”. A recent survey of National Family Health flashes 90% families want only two children but these two children must be sons. Most of families did not talk about girl child. Aspiration of having sons kills baby girl before she sees this world. Incessant dwindling in the number of girls in India proves, where there is advocacy for the development of girls, there is continuous occurrence of higher dissimilarity in sex ratio in so called developed states like Punjab and Hariyana. Data declare that there are 798, 816 and 883 girls per 1000 boys in Punjab, Hariyana and Gujrat respectively and in capital Delhi this ratio is 868 girls/1000 boys. Researches affirm that medical science plays a key role in increasing this crime. Ultrasound technology is rather used in knowing the sex of foetus than its health. Although valuable acts are made in Indian Law to prevent “Female Foeticide”, avarice of doctors and weaknesses of law have augmented the courage of people to commit this inhuman activity.

In India, girls are perceived as descent (Avataar) of goddess. Often people touch the feet of daughters in many houses but when it comes to give birth to daughters, their beliefs err. They cross any limit for doing female foeticide and overlook, they are killing a shape of their adored goddess and faith.

In last October, a campaign was launched by members of “IFPIAN” and “Voice of Children” in goddess temples in Varanasi. Do we really respect the girl child in our family? Do we really posses the right to offer puja (worship) to the goddess? These were some of the questions asked on the first day of Sharadiya Navratra that was marked by a special drive by “Voice of Children” and “IFPIAN” to stop female foeticide. While devotees turned up in the large numbers to offer puja on the auspicious occasion at the famous Durga temple, they were left surprised when members handed them pamphlets and asked for introspection and stopping female foeticide. It was different experience for devotees who thronged in large numbers to the temples that day when they saw this activity with posters and banners pasted in temple premises. Many people were held back by the questions asked by members and many of them even took the pledge to stop “Female Foeticide” on the occasion. In this 3 hours campaign, members of organizations conversed with more than four thousand devotees and encouraged them to pledge to ‘Stop Female Foeticide’. This is also being followed by an appeal to ultrasound centres of the city to stop diagnostic tests that determine the sex of the foetus.

Indeed, India is a country of faith, customs and practices. If these values are venerated with sensation of trust to solve social problems, it undeniably impels and heightens awareness in society. This is what this campaign initiated in Durga temple proved and communicates that if these kinds of activities are conducted at national level, these forms of tribulations can be cracked. It develops the feeling of how can someone develop after committing “Female Foeticide”. How can a nation develop without gender equity? Census of 2001 depicts number of girls are lesser by 6100000 than boys in India in 0-6 years children. In effect this imbalance sex ratio has already instigated polyandrous marriages and women trafficking that attacks women’s rights and push women to live the life of slaves. In Buland Shahar, Merut of Uttar Pradesh, number of girls is too low that girls are procured from other places and compelled to be the wife of all brothers of family.
These sorts of problems are not rare now that need to be stopped for development of nation.

In traditional and customary country like India, developing relation of values and beliefs en route for social problems is certainly an imperative task. If this relation is developed truly and successfully, these kinds of problems can be solved. As for example very often people do not cut Peepal trees which is very much related to faith. If we study epics we observe all kinds of trees and plants are symbols of a kind of faith thus are prohibited to destroy. If people become aware of this, it will certainly assist in protecting environment. Same like, if we relate female foetus with our faith like Durga, gender equity and rights of women in India will unquestionably be higher.